मंगलवार, 30 नवंबर 2010

बेक़दर

वो क्या समझेंगे मेरी जुदाई की तड़प
जिनका अपना कभी उनसे जुदा ना हुआ |
माना उनको मैंने रब, उनका सजदा किया,
पर मैं कभी उनके दिल का खुदा ना हुआ |
पूंछते हैं वो " चाहोगे कब तक हमें?"
शायद क़र्ज़ दिल का जब तक अदा ना हुआ |
वो क्या समझेंगे........

हम तड़पते रहे इश्क में रात दिन,
पर उन्हें तरस हम पर ज़रा ना हुआ |
प्यास से मर गए बीच नदिया के हम,
आब का एक कतरा पर मेरा ना हुआ |
नहीं गुजरा कभी एक पल एक दिन,
ज़ख्म दिल का मेरे जब हरा ना हुआ |
वो क्या समझेंगे........

वो क्या समझेंगे मेरी जुदाई की तड़प 
जिनका अपना कभी उनसे जुदा ना हुआ |

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर और मार्मिक कविता है

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  2. हम तड़पते रहे इश्क में रात दिन,
    पर उन्हें तरस हम पर ज़रा ना हुआ |
    प्यास से मर गए बीच नदिया के हम,
    आब का एक कतरा पर मेरा ना हुआ |
    पूरी तड़प को अभिव्यक्त कर दिया आपने ...प्यार में अक्सर यह दौर चलते रहते हैं ...बहुत मार्मिक भाव की अभिव्यक्ति ...शुक्रिया
    चलते -चलते पर आपका स्वागत है

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  3. बहुत सुन्दर एवं भावभीनी रचना...

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  4. प्यास से मर गए बीच नदिया के हम,
    आब का एक कतरा पर मेरा ना हुआ |
    its a pleasure reading ur poems.....thanx for these superb lines

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