बुधवार, 3 नवंबर 2010

आरंभन

तुम आती हो किसी हवा के  संग,
या फिर तुम यही हो और अचानक से
आती हो सामने चौमाने को.
क्या हो तुम? शायद एक पहेली सी,
या कोई भूली या भुलाई हुई सहेली सी.
तुम्हे देख डरता हूँ, घबराता हूँ,
न जाने क्या-क्या मन ही में बडबडाता हूँ.
तुम अतीत हो या हो भविष्य
नहीं जानता, पर ये जानता हूँ शायद,
थी सदा साथ तुम जीवन के.
चलती थी संग कुछ सामानांतर .
पर क्यूँ आज मिलन यह भयंकर.
यूँ करती हो मेरा आलिंगन, चुम्बन
सूखे सर्द अधरों का .
पहले तीव्र फिर शून्य करती हो हृदय स्पंदन,
आरंभन अज्ञात नव जीवन का .

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