मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

उम्मीद

हर रोज़ सवेरे उठता हूँ,
खिड़की से बाहर तकता हूँ,
सोचता हूँ -
पौधों में कली लगी होगी,
अपनी बगिया भी सजी होगी,
हर तरफ फिजा छाई होगी |
और शायद तू आई होगी |
पर ये हवा बहार नहीं लाती है,
हर रोज़, तू नहीं आती है |

हर शाम मैं छत पर चढ़ता हूँ,
और लाख उम्मीदें गढ़ता हूँ |
सोचता हूँ -
ये आकाश आज गुलाबी होगा,
मौसम भी आज शराबी होगा |
हर ओर मदहोशी छाई होगी,
और शायद तू आई होगी |
पर उम्मीदें धोखा खाती हैं |
हर शाम तू नहीं आती है |

कल रात पवन कुछ यूँ मंद चली,
चहक उठी मेरी सूनी सी गली |
मौसम भी शराबी होने लगा,
ओर बीज फिजा के बोने लगा |
मेरे संग एक परछाई थी,
कल सपने में तू आई थी |

कल सपने में तू आई थी |

10 टिप्‍पणियां:

  1. गहराई से लिखी गयी एक सुंदर रचना...

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  2. शब्द जैसे ढ़ल गये हों खुद बखुद, इस तरह कविता रची है आपने।

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  3. बहुत सुंदर कविता ......शुक्रिया

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  4. गहराई से हर एक भाव को उतरा है आपने ...धन्यवाद

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  5. कितनी खूबसूरती से उतार दिया सबकुछ शब्दों में...
    सारी सोच, सारे मोहब्बत सिर्फ उसके लिए... जो आई थी कल रात सपनों में...
    बहुत ही प्यारी कविता है...

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