गुरुवार, 20 अक्तूबर 2011

ख़त



जनवरी की सर्द रात, एक कम्बल 
और कुछ अटपटे ख़याल
थोड़ी सी मदहोशी, कुछ चाय के प्याले 
और मन मे उठे सवाल 
कुछ पुरानी यादें, और वो नज़्में 
जो तुमने गुनगुनायी थीं 
तुम्हारी बातें, और मेरी पुरानी गजलें 
जो मैंने तुम्हें सुनाई थीं 
मेरी गुस्ताख़ शरारत पे 
तुम्हारी हया भरी डांट
हमने बूढ़े पीपल पे लगाई थी 
जो लाल डोरी की गांठ 
कुछ खत जो कभी भेजे नहीं 
और वो बातें जो कही नहीं 
जिस्मों के ये फासले और
दिलों मे दूरिया जो रही नहीं 
वो बेचैनी मे बदली गयी करवटें 
और तनहाई मे भरी गयी आह 
वो पूनम के चाँद को देखकर 
तुमको छू लेने की चाह 
वो किताबों से निकले 
सूखे फूलों की महक 
तेरे चेहरे का ताब, 
तेरी साँसों की दहक
मेरे कुछ रंगीन ख्वाब, 
और आँखें तेरी शराब  


और भी बहुत कुछ मिला कर 
पकाया है जज़्बातों की आंच पर 
फिर कुछ देर ठंडा किया है 
रख के हसरतों के काँच पर।

कागज़ पे परोस कर 
इक ख़त तुम्हें भेजा है
ज़रा चख के ये बताना 
क्या नमक इश्क़ का सही पड़ा है??

6 टिप्‍पणियां:

  1. अब आप भी लिखने लगे गद्द संगत पद्द

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  2. किन्तु सार गर्भित रचना है

    बधाई हो

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  3. आपका पोस्ट अच्छा लगा । मेर नए पोस्ट ' अपनी पीढी को शब्द देना मामूली बात नही" है पर आपका बेसब्री से इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।

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  4. बहुत अच्छा.... जितनी तारीफ़ करो उतनी कम।!!

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