सोमवार, 22 नवंबर 2010

सपने

ज़िन्दगी का ताना बाना बुनता है मिटाता है मन,
खुद के रचे इस इन्द्रजाल में खुद ही उलझ सा जाता है मन |
अपने जिन ख्वाबों का सिर पर ताज पहन कर तनता था ये,
आज उन्ही सपनों का बोझा क्यूँ कर ना सह पता है मन |
ज़िन्दगी का ताना बाना.....


कुछ सपनो की चादर ओढ़े, कहीं दुबक कर बैठा था बचपन |
अपने जिन सहज सरल सपनों को , उँगलियों पर गिनता था बचपन |
अपने सपनों की राहों पर रोज़ घूमने जाता था ये ,
आज उन्ही राहों पर बढ़ने, से क्यों है कतराता ये मन |
ज़िन्दगी का ताना बाना.....

 ज़िन्दगी का ताना बाना बुनता है मिटाता है मन |

6 टिप्‍पणियां:

  1. कुछ सपनो की चादर ओढ़े, कहीं दुबक कर बैठा था बचपन |
    अपने जिन सहज सरल सपनों को , उँगलियों पर गिनता था बचपन |
    इन पंक्तियों ने दिल छू लिया................ बहुत सुंदर ....रचना....

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  2. ज़िन्दगी का ताना बाना बुनता है मिटाता है मन,
    खुद के रचे इस इन्द्रजाल में खुद ही उलझ सा जाता है मन |
    kya baat kahi hai vikram bhai
    man to manmauji ji hai.......
    jane kya kya .inderjal bunta hai............
    तिलयार में छाया ब्लॉगरों का जादू .............संजय भास्कर

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  3. very gud..........u made me nostalgic about my childhood dreams...thanx 4 d post

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  4. बचपन के सपनों को सुन्दरता से उकेरा है आपने....जाने क्यों बड़े होने क बाद हम उन सहज सरल सपनो को भूल जाते है???

    भावुकता से भरी पोस्ट.....बधाई

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  5. अपने सपनों की राहों पर रोज़ घूमने जाता था ये ,
    आज उन्ही राहों पर बढ़ने, से क्यों है कतराता ये मन |
    waaaaaah

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