मंगलवार, 30 नवंबर 2010

बेक़दर

वो क्या समझेंगे मेरी जुदाई की तड़प
जिनका अपना कभी उनसे जुदा ना हुआ |
माना उनको मैंने रब, उनका सजदा किया,
पर मैं कभी उनके दिल का खुदा ना हुआ |
पूंछते हैं वो " चाहोगे कब तक हमें?"
शायद क़र्ज़ दिल का जब तक अदा ना हुआ |
वो क्या समझेंगे........

हम तड़पते रहे इश्क में रात दिन,
पर उन्हें तरस हम पर ज़रा ना हुआ |
प्यास से मर गए बीच नदिया के हम,
आब का एक कतरा पर मेरा ना हुआ |
नहीं गुजरा कभी एक पल एक दिन,
ज़ख्म दिल का मेरे जब हरा ना हुआ |
वो क्या समझेंगे........

वो क्या समझेंगे मेरी जुदाई की तड़प 
जिनका अपना कभी उनसे जुदा ना हुआ |

रविवार, 28 नवंबर 2010

सजा

मेरे दिल में शमा-ए-इश्क जला कर के चल दिए |
मेरे इश्क को गलत वो बता कर के चल दिए |
पहली नज़र में ही था हमें घायल कर दिया,
क्या फायदा कि अब जो नज़र झुका कर के चल दिए |
मेरे दिल में........

उन्हें हमसे नहीं है इश्क, है ये उनके दिल कि बात |
किसी और के है वो, समझते हैं हम उनके जज़्बात |
पर उम्मीद के सहारे हमें जीने का हक तो है |
क्या हक था उन्हें, जो उम्मीदों का महल गिरा कर के चल दिए |
मेरे दिल में........

मुझको अगर है इश्क तो, मेरी ख़ता है क्या ?
परवाने की मौत की कहो तुम ही वज़ह है क्या ?
शमा ने जलाया है उसे मानोगे ये तुम भी,
अपने गुनाह की हमको सजा सुना कर के चल दिए |
मेरे दिल में........

मेरे दिल में शमा-ए-इश्क जला कर के चल दिए |

शनिवार, 27 नवंबर 2010

वो पागल है ?

क्या वो पागल है, जो बेवजह मुस्कुराता है ?
पागल ही है, तभी सरे राह गुनगुनाता है |
अपनी ही धुन में वो गली गली घूमता है |
राह चलते जानवरों को तो कोई पागल ही चूमता है |
वो राहगीर है, उसका कोई घर बार बही है |
उसे किसी का, किसी को उसका इंतजार नहीं है |
बिना खाए पिए भी दिन रात मुस्कुराता है |
ऐसे ही इंसान को तो पागल कहा जाता है |
क्या वो पागल है........

हर तरफ आग है, है हर ओर बस नफरत का धुंआ,
एक दूजे कि जाँ ले रहे हैं हिन्दू मुसलमाँ |
पर उसे फर्क नहीं, वो तो मुस्कुराता है |
जलते चौराहों पर वो नाचता और गाता है |
खिड़की से देख उसे, मैं घबराता हूँ |
दरवाजा खोल, दौड़ उसके पास जाता हूँ |

पूँछता हूँ की क्यों खुश है ? कैसा इंसान है तू ?
ये बता हिन्दू है या कि मुसलमान है तू ?
ये सुनकर के वो और मुस्कुराता है ,
जवाब देकर वो हँसता और आगे बढ़ जाता है |
कहता है- "ना मै हिन्दू हूँ, ना हूँ मुसलमान मै |
 इन वहशियों कि बस्ती में हूँ इकलौता इंसान मैं |
  ये सब हो गए हैं देखो ना बिलकुल पागल |"
इतना कहकर के बढ़ गया आगे वो पागल |
उसको सुन कर के मैं सोच में पड़ जाता हूँ ,
"कौन पागल है ?" खुद से पूँछता लौट आता हूँ....

"कौन पागल है ?".......

बुधवार, 24 नवंबर 2010

दरिया

मैं खुद दरिया हूँ, तुमसे मिलने मैं पार आऊँ कैसे ?
तुम्हें मैं अपने दिल का हाल सुनाऊँ कैसे ?
कई घरों मे लगी आग है बुझाई मैंने,
पर जो खुद मुझमे लगी है वो बुझाऊँ कैसे ?
मैं खुद........

मेरी लहरें तेरे साहिल को डुबो देती हैं,
तुमको छूने को मैं हाथ बढाऊँ कैसे ?
लोग सुन लेंगे तो कर देंगे वो बदनाम तुम्हें,
डर है रुसवाई का तो कहो तुमको मैं बुलाऊँ कैसे ?
मैं खुद........

कल तपूँगा धूप में फिर हवा में घुल जाऊंगा,
मिलूंगा गर्द से तो बादल में बदल जाऊंगा |
संग हवाओं के मैं तेरी गली आऊँगा,
तेरे बदन पे मै कुछ यूँ बरस जाऊँगा |
तुझे भिगोऊंगा खुद तुझमें डूब जाऊँगा |
बनके फुहार तेरी जुल्फों से उलझ जाऊँगा |
बूँद बन करके तेरे गालों से ढलक जाऊँगा |
चूम कर होंठ, तेरी गर्दन से उतर जाऊँगा |
है ये वादा के मिलूंगा मैं कल ही तुमसे,
पर ये जो रात घनी है वो बिताऊँ कैसे ?
मैं खुद........

मैं खुद दरिया हूँ, तुमसे मिलने मैं पार आऊँ कैसे ?

सोमवार, 22 नवंबर 2010

सपने

ज़िन्दगी का ताना बाना बुनता है मिटाता है मन,
खुद के रचे इस इन्द्रजाल में खुद ही उलझ सा जाता है मन |
अपने जिन ख्वाबों का सिर पर ताज पहन कर तनता था ये,
आज उन्ही सपनों का बोझा क्यूँ कर ना सह पता है मन |
ज़िन्दगी का ताना बाना.....


कुछ सपनो की चादर ओढ़े, कहीं दुबक कर बैठा था बचपन |
अपने जिन सहज सरल सपनों को , उँगलियों पर गिनता था बचपन |
अपने सपनों की राहों पर रोज़ घूमने जाता था ये ,
आज उन्ही राहों पर बढ़ने, से क्यों है कतराता ये मन |
ज़िन्दगी का ताना बाना.....

 ज़िन्दगी का ताना बाना बुनता है मिटाता है मन |

शनिवार, 20 नवंबर 2010

दीवाना

दूर जा के भी दूर मुझसे तुम जा ना सकोगे |
भूल जाओगे खुद को, पर मुझे भुला ना सकोगे |
तुम में ही मै दफन हूँ, हूँ तुम में ही रवाँ |
मेरे निशान अपने जिस्म से, मिटा ना सकोगे |
दूर जा के ......


तुम तो हो ही ख़ास, पर मैं भी कोई आम नहीं हूँ |
सुन कर के भुला दोगे,  मैं वो नाम नहीं हूँ |
आशिक मिलेंगे मुझसे तुम्हें, दुनिया में रोज़ लाख |
दीवाना कोई मुझ सा कहीं पा ना सकोगे |
दूर जा के भी दूर मुझसे तुम जा ना सकोगे |

 दूर जा के भी दूर मुझसे तुम जा ना सकोगे |

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

तलाश

फिरता है क्यूँ गली में, क्यूँ भटकता है दर-ब-दर |
हर सू यही सवाल है, यही पूंछे है हर नज़र |
मेरा यही जवाब है, यही बात बोलता हूँ |
मेरा कुछ खो गया है, मै वो सामान ढूंढता हूँ |

कल थी जो साथ, पर छिन गयी उनकी गली में |
अपने लबों की खोयी वो मुस्कान ढूंढता हूँ |
मेरा कुछ......

उनकी उठे मुझ पर भी इनायत की इक नज़र |
उनकी हसीं आँखों का वो एहसान ढूंढता हूँ |
मेरा कुछ......

 उड़ा ले जाए मेरी गमीं को जो दूर बहुत दूर |
मै उनकी चाहतों के वो तूफ़ान ढूँढता हूँ |
मेरा कुछ......

 है दूर मगर फिर भी मेरे दिल से जुदा नहीं,
 मेरे दिल के कमरे का वो मेहमान ढूँढता हूँ |
मेरा कुछ......

सामने बिठा के मैं कर सकूँ उनका भी सजदा,
सालों से मै बस वो इक रमजान ढूँढता हूँ |
मेरा कुछ......

खुद से हूँ बेखबर, नहीं दुनिया का कुछ पता,
 अपने हश्र और हाल से अनजान ढूँढता हूँ |
मेरा कुछ खो गया है, मै वो सामान ढूंढता हूँ |

मेरा कुछ खो गया है, मै वो सामान ढूंढता हूँ |

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

रिश्ते


दिल करता है अब हम रो दें,
बाँध तोड़ दें, जंहाँ डुबो दें |
चीख चीख कर सबसे कह दें,
बस बहुत हुआ, अब और नहीं |
रिश्ते इंसानों के और नहीं |

ये वो इंसान हैं, जो लड़ते हैं,
जाति धरम पर, क्रिया करम पर,
सच्चे झूठे मिथक भरम पर |
कब, क्यूँ, किससे लड़ ले ठौर नहीं |
बस बहुत हुआ, अब और नहीं |
रिश्ते इंसानों के और नहीं |

 ये वो इंसान हैं, जो लड़ते हैं,
कभी मज़हब पर, कभी सरहद पर,
तो कभी दूसरे की बरक़त पर |
इनके रिश्तों को अब खो दें |
दिल करता है अब हम रो दें |

दिल करता है अब हम रो दें |

सोमवार, 15 नवंबर 2010

जीवन





आज हुआ क्या ऐसा मानव,
जो आँखों में आंसू   है |
आज हुआ क्या ऐसा मानव,
जो रोने का दिल करता है | 
टूट गया क्या कोई सपना,
या बिछड़ा है कोई अपना |
माना  क़ि दुःख होता है ,
जब कुछ ऐसा होता है |
सपने तो बनते और बिखरते है ,
जीवन में अपने मिलते और बिछड़ते   है,
विरले होते है जो फिर भी बैठे हँसते है | 
छोड़ ये सारी व्यर्थ क़ि चिंता ,
बस तू आगे बढ़ते जाना |
बिना  रुके रस्तों में तू ,
मंजिल पर तू बढ़ते जाना |
सपने तो उनके पूरे होते है ,
जो टूटे सपने फिर से बैठ संजोते है |
कुछ फिर अपने मिल जाते है ,
जब हम आगे बढ़ते जाते है |
मेरा तू बस मान ये कहना,
आगे तू बस बढ़ते जाना,
व्यथित ह्रदय को भरते जाना |
फिर  एक दिन ऐसा आएगा,
जब दुःख तेरा छट जायेगा |
तब कुछ ऐसा  होगा मानव,
आँखों में रश्मि चमकेगी |
तब कुछ ऐसा होगा मानव ,
जीवन में खुसिया छलकेगी |
                                        
[इस चिट्ठे  पर यह मेरी प्रथम रचना  है| अपने विचार जरूर व्यक्त करे.बुरा सही जो भी हो जैसा भी हो अवश्य कहे |विचारों की प्रतीक्षा में आपका अनुज ......................................
                                                                ---विशाल श्रीवास्तव ]

शनिवार, 13 नवंबर 2010

ख़ता

दिल नहीं मानता कि हैं वो बेवफा हो गए
कोई ख़ता हुई है जिससे हैं वो ख़फ़ा हो गए
दिल नहीं मानता कि........

जो थे जीने का मकसद, मेरे मुस्कुराने कि वजह
आज वो दर्द-ओ-ग़म कि वजह हो गए
मेरे दर्द को सुन कर रो पड़ते थे जो
मेरी मौत से भी वो बेपरवाह हो गए
फिर भी दिल नहीं मानता कि हैं वो बेवफा हो गए
कोई खता हुई है जिससे हैं वो ख़फ़ा हो गए...

पहले कहते थे कि मेरे होने से आती है चमन में बहार
फिर क्यूँ  हम आज हवा-ए-खिज़ा हो गए
कुछ भी तो नहीं बदला इस जहां में मगर
हम तुम बदल के क्या से क्या हो गए
कोई बता दे मुझे मेरी मौत से पहले
क्या खता हुई हमसे, क्यूँ वो ख़फ़ा हो गए
दिल नहीं मानता कि हैं वो बेवफा हो गए
कोई खता हुई है जिससे हैं वो ख़फ़ा हो गए
दिल नहीं मानता कि........

शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

सफ़र

मुझे बिठा परों पर, ऐ हवा ले चल |
कहीं दूर इस जहाँ से उड़ा ले चल |
ना जान मंजिलें, ना पूँछ तू पता |
करके मुझे मुझसे ही लापता ले चल |
मुझे बिठा परों पर......

ना महफ़िलें वहाँ हों, ना तन्हाईयाँ वहाँ |
खुशियों को यहीं छोड़ दें, ना गम ले चलें वहाँ |
ज़िन्दगी से दूर मौत से कुछ जुदा ले चल |
मुझे बिठा परों पर......

मुझे बिठा परों पर, ऐ हवा ले चल |

बुधवार, 10 नवंबर 2010

नाम

लिख कर इक नाम दिल पर, कभी मिटा न सके |
तुमसे कहने की हिम्मत भी तो, जुटा न सके |
लम्हे तन्हाईयों के, हमने भी गुजारे लाखों,
फिर भी इक पल क्यूँ तेरे साथ, हम बिता न सके |
लिख कर इक नाम.......

यूँ तो धड़कन ने भी बढ़ कर के, पुकारा तुमको |
लब थे ख़ामोश मगर इन ने भी, था चाहा तुमको |
मेरे अरमाँ भी तो बिछे थे, राहों में तेरी |
क्या थी मजबूरी, कि तुम जो कभी आ न सके |
लिख कर इक नाम......

छोड़ देंगे ये गली, गाँव, शहर, और दुनिया,
तुम नहीं मेरे तो, मेरा है भला कौन यहाँ |
तुम थे हर दम मेरे, मेरे और बस मेरे |
क्या थी हम में कमीं, हमको जो तुम अपना न सके |
लिख कर इक नाम......

लिख कर इक नाम दिल पर, कभी मिटा न सके |

शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

नासमझ

तुम्हे शिकवा है कि हमको इश्क करना नहीं आता |
हमें ग़म है कि हमको आज बस इतना नहीं आता |
तुम्हारी हर शिकायत का जवाब भी  है हमारे पास,
मगर हर बात को जुबाँ से हमें कहना नहीं आता |
हमें गम है कि......

अरमाँ लाख उठते हैं लहरों से, इस दिल में |
मगर लफ्जों में पिरो इनको, हमें ख़त लिखना नहीं आता |
हमें ग़म है कि......

हम हैं नासमझ, हमको न आता हो भले कुछ भी |
न कहना कि हमें तुम पर अभी मरना नहीं आता |

न कहना कि हमें तुम पर अभी मरना नहीं आता |

नसीब

अभी शब् है के कोई ख्वाब सहेजें आओ |
अपनी सुबह को हसीं और भी कर दे आओ |
लम्हे खुशियों के जो बिखरे है आज |
उन्ही लम्हों को फिर से समेटें आओ |
अभी शब् है......

रात काली है मगर चांदनी की तो है आस |
हमको कुछ देर भी हुई तो है आज |
सुबह भूले थे मगर शाम को लौटें आओ |
अभी शब् है.....

बस करो अब अपने नसीब पर रोना |
न कहो के होगा वही जो है होना |
अपनी किस्मत को अपने हाँथ से लिख दें आओ |
अभी शब् है......

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

दस्तक

मुझे हर शह में बस तेरा, तेरा दीदार होता है |
तू होकर दूर भी, मेरे जिगर के पास होता है |
कि है ये रोग वो, जिसकी शफ़ा कोई नहीं होती |
ये दर्द-ए-ख़ास है, वो नाम जिसका प्यार होता है |


रातें बेजा गुजरती हैं, दिन भी बेकार होते है |
अपने महबूब से मिलने को दिल बेक़रार होते हैं |
नहीं इसकी ख़ता कोई, मगर फिर भी न जाने क्यूँ |
जिन्हें नज़रें मिलाती हैं, वो दिल गुनाहगार होते हैं |


चादर की सिलवटों में दबी खुशबू उसी की है |
हाँ इस झूमर कि हर आवाज़ भी लगती उसी की है |
मै दरवाज़े पे हर आहट को सुन क्यूँ कर के न चौकूँ |
कि हर आहट पे लगता है कि ये दस्तक उसी की है |

कि हर आहट पे लगता है कि ये दस्तक उसी की है |

तलाश


चल पड़ा हूँ इक सफ़र पर,
एक अनजानी डगर पर |
मजिल पता है, कि जाना कहाँ है |
पर रास्ता नहीं, वो कहीं खो गया है |
वो मंजिल मैं अब हर डगर ढूँढता हूँ |
कभी तो मिलेगी, अगर ढूँढता हूँ |

जज्बों में हिम्मत, इरादे बड़े हैं |
मगर राह में ऊंचे पर्वत खड़े हैं |
इन्हें पार करना भी मुश्किल बड़ा है |
मगर अब ये बंद भी जिद पे अड़ा है|
इन्हें लांघने का सबब ढूँढता हूँ |
कभी तो मिलेगा अगर ढूँढता हूँ |

किसी कि दुआएं मेरे साथ भी हैं|
कुछ संग चलते मेरे आज भी हैं |
कह नहीं सकता कि कब तक रहेंगे |
परिवर्तन कि धारा में ये भी बहेंगे |
फिर भी अंजाम से बेखबर ढूंढता हूँ |

कभी तो........ 

प्रेम

 
मुझे दिल की दीवारों पर तुम्हारी प्रीत लिखने दो
अपनी पायल की धुन पर मुझे इक गीत लिखने दो
मेरे उस गीत के हर छंद में जिक्र तुम्हारा हो
मेरे शब्दों के आईने में अपनी तस्वीर दिखने दो
मुझे दिल की ........

मेरे प्रेम और पूजा में न कोई भेद रह जाए
मेरा दिल प्रेम की देवी तेरा मंदिर ही बन जाए
तुम्हारी प्रेम सरिता में मैं कुछ यूँ उतर जाऊँ
न तो डूबूं कहीं उसमे, न उसमे मैं तिर पाऊँ
मुझे लहरों की मानिंद अपने संग-संग बहने दो
मुझे दिल की.......


असर हो प्रेम का तेरे की मैं खुद मैं न रह जाऊँ
टूट के चूर हो जाऊँ और तुम में ही मिल जाऊँ
मुझे न चाहिए ये जिस्म मिटता है तो मिट जाए
बस मेरी रूह को जन्नत में तेरी रूह मिल जाए
बनाने को दास्ताँ-ए-इश्क मेरी शख्शियत भी मिटने दो

मुझे दिल की दीवारों पर तुम्हारी प्रीत लिखने दो
अपनी पायल की धुन पर मुझे इक गीत लिखने दो

बुधवार, 3 नवंबर 2010

दोस्त

दोस्त पाए हैं बहुत दोस्ती पाई नहीं
दोस्तों की भीड़ में तन्हाईयाँ छाई रही
चल पड़े थे इक सफ़र पर  दोस्तों के संग हम
आगे-आगे हम चले तो
दोस्त बोले, ''हैं पीछे ही हम''
ठोकर लगी तो पीछे देखा,  तो दिखा कोई नहीं.
दोस्त पाए हैं बहुत दोस्ती पाई नहीं
दोस्तों की भीड़ में तन्हाईयाँ छाई रही

ऐ ज़िन्दगी! तू भी कभी  यूँ रहम से तो काम ले
लडखड़ाऊँ मैं तो कोई  दोस्त आकर थाम ले
ज़िन्दगी तू ऐसा मंज़र  क्यों कभी लायी नहीं
दोस्त पाए हैं बहुत दोस्ती पाई नहीं
दोस्तों की भीड़ में तन्हाईयाँ छाई रही

आरंभन

तुम आती हो किसी हवा के  संग,
या फिर तुम यही हो और अचानक से
आती हो सामने चौमाने को.
क्या हो तुम? शायद एक पहेली सी,
या कोई भूली या भुलाई हुई सहेली सी.
तुम्हे देख डरता हूँ, घबराता हूँ,
न जाने क्या-क्या मन ही में बडबडाता हूँ.
तुम अतीत हो या हो भविष्य
नहीं जानता, पर ये जानता हूँ शायद,
थी सदा साथ तुम जीवन के.
चलती थी संग कुछ सामानांतर .
पर क्यूँ आज मिलन यह भयंकर.
यूँ करती हो मेरा आलिंगन, चुम्बन
सूखे सर्द अधरों का .
पहले तीव्र फिर शून्य करती हो हृदय स्पंदन,
आरंभन अज्ञात नव जीवन का .

वहाँ अब घर नहीं बसते

वहाँ अब घर नहीं बसते, बस मकान रहते हैं |
नहीं बनते वहाँ कुनबे, बस संग कुछ इंसान रहते हैं |
वहाँ बाबूजी की डांट, माँ का प्यार नहीं है अब,
हर शाम बेटे का माँ को इंतज़ार नहीं है अब |
खाने की मेज पर वहाँ अब बतकही नहीं होती,
ये सब बातें तो शायद अब कहीं नहीं होती |
रिमोट की ख़ातिर वहाँ अब कोई नहीं लड़ता |
अमरुद की टहनी पर वहाँ कोई नहीं चढ़ता |
देर से आने पर अब कोई कुछ नहीं पूँछता |
दोस्तों संग बाहर जाने से पहले कोई कुछ नहीं सोचता |
वहाँ लोग दर्द और जज्बातों से बेदाग़ रहते हैं |
वहाँ अब दिल नहीं रहते बस दिमाग रहते हैं |

वहीँ कई मकानों के बीच मेरा भी घर रहता था,
पर अब नहीं, वो भी मकान बन गया है |
ना जाने क्या था और क्या अब हर इंसान बन गया है ?
वहाँ संग रह कर भी लोग एक दूजे से हो अनजान रहते है |
वहाँ अब घर नहीं बसते, बस मकान रहते हैं |

वहाँ अब घर नहीं बसते, बस मकान रहते हैं |

दूरियाँ

दूर दूर रह के कभी पास चले आओ,
जिसे हम भी गुनगुनाये ऐसा गीत कोई गाओ |
बीते पलों के पन्ने चलो साथ साथ खोलें,
हम अपनी बताएं तुम भी अपनी सुनाओ|
दूर-दूर रह के........

हम फातिया करें तुम भागवत कराओ |
हम आयतें पढ़ें तुम चालिसे गाओ |
धर्म, कौम को कुछ पीछे छोड़कर,
अबके हम ईदी बाँटें तुम भंडारे कराओ |
दूर-दूर रह के........

दूर-दूर रह के कुछ यूँ जलसे मनाओ,
हम नात गायें तुम फगुआ गुनगुनाओ |
चलो हमसफ़र अबके कुछ यूँ करें,
की हम सेवइयां पकाएं तुम गुझिया बनाओ |
दूर-दूर रह के........

सरहदों की जगह कोई गुल्स्तां बसाओ,
हम कांटे हटायें तुम फूल उगाओ |
हवाओं संग उड़ के मिलने आयें हम तुम,
हम पुरवाई संग आयें तुम पछुआ संग आओ |
दूर-दूर रह के कभी दूरियाँ मिटाओ,
जिस्म जुदा ही सही दिल से दिल तो मिलाओ |
दूर-दूर रह के........

दूर दूर रह के कभी पास चले आओ........

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