मैं तो कलाम-ए-इश्क़ का व्यापार करता हूँ
खुद भी बीमार हूँ, सबको बीमार करता हूँ
मुझको दे जाता है वो शख्स हमेशा ही धोखा
फिर भी भरोसा मैं उसका बार-बार करता हूँ
देगी तू मौत मुझे इक तो दिन थक करके
ज़िंदगी इतना तो तुझपे एतबार करता हूँ
मेरा जनाज़ा न उठाओ उनको ज़रा आने दो
दो घड़ी और रुक के उनका इंतज़ार करता हूँ
वो पूछते हैं, "प्यार करते हो कितना हमसे "
कम ही होगा जो कहूँ बेशुमार करता हूँ
कैसे मैं छोड़ दूँ घर बार सब तेरी खातिर
तुझसे ही नहीं माँ से भी प्यार करता हूँ
सुन्दर रचना के लिए बधाई स्वीकार करें.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति वाह!
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत शुक्रिया .....:)
जवाब देंहटाएंtujhse hi nahi maa se bi pyar karta hoon...lajab panktiya..behtarin geer..sadar badhayee aaur amantran ke sath
जवाब देंहटाएंnice lines
जवाब देंहटाएंvery nice...
जवाब देंहटाएंbeautiful thoughts..........
anu
thanks....:)
जवाब देंहटाएंBahut Khub Vikram ji...
जवाब देंहटाएंIsakaa Bukhaaar Sar Chadha Gyaa Hai..,
जवाब देंहटाएंDoctor Ko Dikhaao Koi.....